- अजय ब्रह्मात्मज
- मुंबई से, बीबीसी हिंदी के लिए
मैं कितना तन्हा था ऐ दोस्त तेरे बिना
तेरा दिल भी था ख़ाली ख़ाली देख मेरे बिना
तू जो मिला ऐसा लगा बिखरा हुआ सपना सजा
मोहब्बत की बहारों से यह दामन भर दिया तूने
मेरी वीरान राहों में उजाला कर दिया तूने
इन पंक्तियों को नदीम-श्रवण ने 'दोस्ती फ्रेंड्स फ़ॉरएवर' के लिए संगीतबद्ध किया था और विडंबना देखें कि इसके बाद उन दोनों ने फिर कभी साथ काम नहीं किया. संगीत के परिदृश्य से दोनों ही अदृश्य हो गए. हालाँकि नदीम ने बाद में कुछ फ़िल्मों में अकेले संगीत दिया, लेकिन वे अपनी ही लोकप्रियता नहीं हासिल कर सके.
दूसरी तरफ़ श्रवण अपने बेटों संजीव-दर्शन की संगीतकार जोड़ी को आगे बढ़ाने में व्यस्त हो गए. ग़ौरतलब है कि गुलशन कुमार की हत्या की साज़िश में अभियुक्त नदीम के आत्मनिर्वासन के बाद ही यह जोड़ी टूट गई थी. दूसरी संक्षिप्त पारी में वे पिछली बार का जादू नहीं जगा पाए.
इस बीच अनु मलिक, एआर रहमान और कुछ अन्य संगीतकारों ने अपने संगीत से पूरा माहौल बदल दिया था. हिंदी फ़िल्मों के संगीत में नई धुन, ध्वनि और लय प्रचलित हो गई थी.
नदीम-श्रवण को आज भी उनकी पहली लोकप्रिय फ़िल्म 'आशिक़ी' के संगीत के लिए याद किया जाता है. इस फ़िल्म के संगीत की लयकारी और पारंपरिक भारतीय वाद्य यंत्रों के नए उपयोग ने ऐसी मधुरता छेड़ी कि इस फ़िल्म के कैसेट हाथों-हाथ बिके.
'आशिक़ी' के संगीत की रिकॉर्डतोड़ बिक्री ने संगीतकार जोड़ी नदीम-श्रवण को हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री का चहेता बना दिया. कहते हैं कि लोकप्रियता के दिनों में दर्जनों फ़िल्म निर्माताओं की क़तार उनके घर के आगे लगी रहती थी. 'आशिक़ी' के पहले तक निर्माताओं से काम माँग रहे नदीम-श्रवण अब फ़िल्में चुनने लगे.
श्रवण पर कोई भी बात बग़ैर नदीम के पूरी नहीं हो सकती. सेंट एनी स्कूल के एक कंसर्ट में दोनों की मुलाक़ात हुई. पहली मुलाक़ात में ही दोनों को अहसास हुआ कि उनकी धड़कनों में संगीत के समान ध्वनि तरंग हैं.
नई धुनों के मास्टर
दोनों ने साथ काम करने का फ़ैसला किया और नदीम-श्रवण नाम की नई संगीतकार जोड़ी काम की तलाश में हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में भटकने लगी. 1979 में आई भोजपुरी फ़िल्म 'दंगल' का एक पारंपरिक गीत 'काशी हिले, छपरा हिले' नई धुनों में मन्ना डे की आवाज़ के साथ पॉपुलर हुआ.
इस पॉपुलरिटी से नदीम श्रवण को तत्काल कोई फ़ायदा नहीं हुआ. हाँ, उनका परस्पर विश्वास मज़बूत हुआ कि वे साथ रहें, तो उनकी धुनें संगीत के आकाश में नई ऊँचाइयों तक पहुँच जाएँगी. वे सही वक़्त के इंतज़ार में धुनें रचते रहे और और अपनी लाइब्रेरी समृद्ध करते रहे. एकबारगी लोकप्रियता मिलने के साथ फ़िल्में मिलने लगीं, तो यह लाइब्रेरी काम आई.
कम लोग जानते हैं कि नदीम-श्रवण के करियर को आगे बढ़ाने में अभिनेता मिथुन चक्रवर्ती की बड़ी भूमिका रही है. नदीम-श्रवण ने अनवर सागर के गीतों से सजा 'स्टार टेन' नामक अल्बम 1985 में जारी किया था. इस अल्बम का एक गीत 'अंगूरी पानी चढ़ गया' मिथुन चक्रवर्ती ने गाया था.
इस अल्बम के गीत अनिल कपूर, जैकी श्रॉफ, सचिन और डैनी सरीखे कलाकारों ने भी गाए थे. उनके उत्साह और लगन से प्रभावित मिथुन चक्रवर्ती निर्माताओं से उनकी सिफ़ारिश करने लगे थे. 1981 में आई 'मैंने जीना सीख लिया' में उनके द्वारा संगीतबद्ध गीत अमित कुमार ने गाए थे.
उनके करियर के आरंभिक दिनों में 'इलाक़ा' और 'बाप नंबरी बेटा दस नंबरी' का उल्लेख किया जाना चाहिए. 'बाप नंबरी बेटा दस नंबरी' में एक गीत अनुराधा पौड़वाल ने गाया था. वह इन दोनों से प्रभावित हुई थीं. बताते हैं कि उन्होंने ही नदीम-श्रवण का परिचाय टी सिरीज के मालिक गुलशन कुमार से करवाया और 'आशिक़ी' के संगीत के लिए सिफ़ारिश की.
गुलशन कुमार तब टेप टायकून के नाम से विख्यात थे. उन्होंने 'आशिक़ी' फ़िल्म बनाने से पहले उसके सभी गाने रिकॉर्ड कर लिए. तैयार कैसेट महेश भट्ट को सौंपते हुए उन्होंने कहा कि इसके संगीत पर आधारित एक फ़िल्म निर्देशित करें. हिंदी फ़िल्मों के इतिहास में ऐसा पहली बार हो रहा था कि किसी फ़िल्म के संगीत को ध्यान में रखकर फ़िल्म की स्क्रिप्ट लिखी जा रही हो.
आशिक़ी का कमाल
महेश भट्ट ने तो पहली बार में मना कर दिया था, लेकिन छोटे भाई रॉबिन भट्ट के आग्रह पर राज़ी हो गए. उन्होंने इस फ़िल्म को लिखने की ज़िम्मेदारी यह कहते हुए रॉबिन भट्ट को सौंप दी कि तुमने ही 'हाँ' करवाया है. अब तुम फ़िल्म लिखो. 'आशिक़ी' फ़िल्म और उसके संगीत ने हिंदी फ़िल्मों का एक इतिहास रचा.
श्रवण राठौड़ के पिता चतुर्भुज राठौड़ स्वयं संगीतज्ञ थे. परिवार और परवरिश में श्रवण और उनके भाई रूप कुमार राठौड़ को संगीत विरासत में मिला. श्रवण संगीतकार के तौर पर मशहूर हुए और रूप कुमार राठौड़ ने गायकी में ख़ास स्थान बनाया.
श्रवण राठौड़ और नदीम सैफ़ी की जोड़ी एक अनोखी जोड़ी रही. हिंदी फ़िल्मों के संगीत की दुनिया में ऐसी जोड़ी (एक मुसलमान, दूसरा हिंदू) पहली बार आई थी. संगीत ने उन दोनों को मज़बूती से जोड़ा था. इस जोड़ी में नदीम धुन रचने में माहिर थे.
धुनों के धनी नदीम ही गायकों को सिखाते और बताते थे. श्रवण की ज़िम्मेदारी ऑर्केस्ट्राइज़ेशन की होती थी. उनके आने के पहले तक हिंदी की एक्शन फ़िल्मों में संगीत की गुंजाइश बहुत कम रह गई थी. 'आशिक़ी' ने फ़िल्म निर्माताओं को ऐसी फ़िल्मों की तरफ़ मोडा, जिसमें संगीत का उपयोग किसी स्टार की तरह हो.
स्वयं महेश भट्ट ने उन्हें 'सड़क' और 'दिल है कि मानता नहीं' जैसी फ़िल्मों से और आगे बढ़ा दिया. उनकी लोकप्रियता की बात करें, तो उन्होंने हिंदी फिल्मों के स्वर्ण युग की संगीत परंपरा को अपनाया. भारतीय वाद्य यंत्र बांसुरी, शहनाई और ढोलक का इस्तेमाल किया.
गीतों की मेलोडी पर बहुत ज़ोर दिया. महज संयोग नहीं था कि उनकी फ़िल्मों के गाने हिट होते रहे. इसमें उनके सहयोगी समीर अनजान की भी बड़ी निर्णायक भूमिका है. उनके गीतों के सहज बोल और भाव आम श्रोताओं की ज़ुबान पर चढ़ जाते थे और उनकी भावनाओं की अभिव्यक्ति के काम आते थे.
गीतकार समीर और संगीतकार नदीम-श्रवण के गीतों से पूरा देश गुंजायमान हुआ था. नदीम-श्रवण अपने हर गाने पर बहुत मेहनत करते थे और पूरी तरह से संतुष्ट होने के बाद ही उसे किसी फ़िल्म में रखते थे. उनकी लोकप्रियता का दूसरा बड़ा कारण टेप टायकून द्वारा उनकी फ़िल्मों के कैसेट को सस्ती क़ीमत में बाज़ार में लाना था.
तब संगीत कंपनी एचएमवी के कैसेट से आधी और उससे भी कम क़ीमत में लाकर उन्होंने बाज़ार पाट दिया था. इस 'कैसेट कल्चर' का सीधा फ़ायदा संगीतकार नदीम-श्रवण को मिला. उनकी लोकप्रियता का यह आलम था कि पोस्टर और कैसेट के फ्लैप पर फ़िल्म के सितारों के साथ उनकी भी तस्वीरें छपती थीं.
आरोप ने तोड़ी जोड़ी
हर लोकप्रियता का अंत होता है. नदीम-श्रवण के साथ ये अचानक हुआ. 1997 में गुलशन कुमार की हत्या में साज़िश रचने का आरोप नदीम पर लगा. नदीन उन दिनों अपनी बीवी के इलाज के सिलसिले में लंदन गए थे.
गिरफ्तारी के डर से वे नहीं लौटे और इधर श्रवण से मिलने में भी फ़िल्म इंडस्ट्री के लोग हिचकिचाने लगे. नदीम की अनुपस्थिति में श्रवण ने हाथ में ली कुछ फ़िल्मों का संगीत पूरा किया, लेकिन उनमें दोनों की ख़ासियत ग़ायब थी.
आरोप मुक्त होने के बाद दोनों ने 21वीं सदी की शुरुआत में फिर से कोशिश की और 'धड़कन' जैसी फ़िल्मों से लौटे, लेकिन भौगोलिक दूरी और संगीत के बासीपन ने उन्हें धीरे-धीरे किनारे कर दिया. इस लोकप्रिय जोड़ी की व्यथा रही कि नदीम आज भी गिरफ्तारी के डर से भारत नहीं आ रहे हैं और श्रवण मुंबई में रहते हुए नदीम के सहयोगी होने का लांछन झेलते रहे.
बाद में वे इतने अकेले पड़ गए कि हमेशा अवसाद में दिखाई पड़ते थे. उनका उत्साह बुझ गया. उनकी आवाज़ और चाल में पहले जैसी खनक और ठसक नहीं रह गई. अपकीर्ति से उनका आत्मविश्वास हिल गया. निजी बातचीत में वह अक्सर इस दुख को शेयर करते थे और मानते थे कि उनकी अपकीर्ति ने उनकी ख्याति को ग्रहण लगा दिया.
साथ में काम न करने के बाद भी नदीम के साथ उनकी दोस्ती बनी रही. नदीम उनके ख़ैरख़्वाह बने रहे. फिर भी दूसरी संगीतकार जोड़ियों की तरह एक-दूसरे से बिछड़ने के बाद वे भी पुरानी रवानी के साथ नहीं लौट पाए. पिछली सदी के आख़िरी दशक के संगीत के साथ मेलोडी की वापसी की जब भी बात होगी, तो नदीम-श्रवण के योगदान को याद किया जाएगा.
श्रवण: नदीम पर लगे आरोपों के बाद करियर पर था ग्रहण - BBC हिंदी
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