समीर मेहरा नाम का एक आदमी है, जो पैराडॉय नाम की एक एड फिल्म कंपनी चलाता है. एक ऐड फिल्म की शूटिंग के लिए वो कहीं पहाड़ों में गया हुआ था. उसे लौटकर दिल्ली आना था. मगर दिल्ली से कुछ 200 किलोमीटर दूर वो भारी बर्फबारी में फंस जाता है. वो उससे निकलने का प्रयास करता है लेकिन उसकी गाड़ी बंद पड़ जाती है. इस मुश्किल सिचुएशन में समीर को वहां एक आदमी मिलता है. वो समीर से रिक्वेस्ट करता है कि मौसम के सुधरने तक वो उनके दोस्त के घर रुक जाए. समीर उसकी इस रिक्वेस्ट के जवाब में कहता है-
”आप मेरे लिए मसीहा बनकर आए हैं.”
इसके जवाब में वो आदमी कहता है-
”नॉट मसीहा, मायसेल्फ परमजीत सिंह भुल्लर.”
यहां से इस तरह के अनफनी जोक्स के साथ फिल्म की कहानी आगे बढ़ती है. भुल्लर साहब के घर पहुंचने पर समीर की मुलाकात उनके चार दोस्तों से होती है.
जगदीश आचार्य, जो कि रिटायर्ड जज हैं. हरिया जाटव रिटायर्ड जल्लाद हैं और लतीफ ज़ैदी हैं रिटायर्ड वकील हैं. इन बुजुर्ग लोगों के पास करने को कुछ काम नहीं है, इसलिए रोज रात ये लोग मॉक ट्रायल जैसा एक गेम खेलते हैं. यानी किसी पुराने चर्चित केस की सुनवाई करते हैं. वो लोग समीर को भी अपने इस खेल में शामिल करते हैं. मगर धीरे-धीरे ये खेल सीरियस होने लगता है. मगर आपको उसकी गंभीरता का इल्म फिल्म में किसी मौके पर नहीं होता.
एक्टर्स की परफॉरमेंस
जिस फ्रेम में आप अमिताभ बच्चन, अन्नू कपूर, रघुबीर यादव और धृतिमान चैटर्जी जैसे दिग्गज एक्टर्स को एकसाथ खड़ा कर दें, उस फिल्म में एक्टिंग परफॉरमेंस का स्तर अचानक से बहुत ऊपर चला जाता है. उनके साथ हैं इमरान हाशमी, जिन्होंने समीर मेहरा नाम के ऐड फिल्म कंपनी के कर्ता-धर्ता का रोल किया है. यही वो किरदार है, जिसके इर्द-गिर्द इस फिल्म की कहानी घूमती है. इन चार सैवेज बुजुर्गों के साथ उस घर में एना और जो नाम के दो और लोग रहते हैं. एना का रोल किया है रिया चक्रवर्ती ने और जो बने हैं सिद्धांत कपूर. इन दोनों की बड़ी ट्रैजिक बैकस्टोरी है, जो फिल्म की कहानी में रत्तीभर वैल्यू ऐडिशन करती है. एक्टर्स की बात हो रही है, तो ये भी जान लीजिए कि इस फिल्म क्रिस्टल डिसूज़ा ने भी किया है. क्रिस्टल अपने टीवी शो ‘एक हज़ारों में मेरी बहना है’ के लिए जानी जाती हैं. फिल्म में उनका अधिकतर समय स्विमिंग पूल में बीता है, इस चक्कर में उनका कैरेक्टर ही डूब गया है.
फिल्म की अच्छी बातें
इस टॉपिक पर हम आपका ज़्यादा समय नहीं लेंगे क्योंकि फिल्म के मेकर्स ने भी इस पर कुछ खास टाइम नहीं दिया है. ‘चेहरे’ एक ऐसी फिल्म है, जो तगड़े परफॉरमेंसेज़ के बावजूद एक बुरी फिल्म साबित होती है. फिल्म के नेवर एंडिंग क्लाइमैक्स में अमिताभ बच्चन का कैरेक्टर लतीफ ज़ैदी एक लंबा-चौड़ा मोनोलॉग देता है. उस समय वो किरदार बहुत सही और हिला देने वाली बातें बोल रहा होता है. मगर उसकी टाइमिंग और जगह दोनों ही गलत लगती हैं. इस मोनोलॉग को सुनकर ऐसा लगता है मानों ये ‘पिंक’ फिल्म से अमिताभ बच्चन का डिलीटेड सीन है, जिसे ‘चेहरे’ फिल्म के आखिर में नत्थी कर दिया गया है.
‘चेहरे’ की कुछ गिनी-चुनी अच्छी बातों में अन्नू कपूर का निभाया परमजीत सिंह भुल्लर का किरदार ज़रूर शामिल किया जाना चाहिए. वो इकलौता कैरेक्टर है, जो फिल्म को न सिर्फ कॉमिक रिलीफ देता है. बल्कि उसे वन टाइम वॉच बनाने में भी मदद करता है. फिल्म के विज़ुअल्स बड़े अच्छे हैं. मगर अन-बिलीवेबल हैं. आपको यकीन नहीं आता कि भारी बर्फबारी के बीच खड़े होकर दो लोग बात कर रहे हैं और उनके कंधे और सिर पर बर्फ के सिर्फ कुछ फाहे ही पड़ते हैं.
फिल्म की बुरी बातें
इस सेग्मेंट पर अलग से एक लेख लिखा जा सकता है. मगर नेगेटिव चीज़ों के लिए उतना समय और एनर्जी खर्च करने का कोई मतलब नहीं है. इसलिए अपन संक्षेप में ही बात करेंगे. ‘चेहरे’ एक थ्रिलर फिल्म है. ये कहकर इसे प्रमोट किया जा रहा है. मगर ये एक सिंपल कोर्ट रूम ड्रामा है, जो एक नकली कोर्ट में घटती है. ये आइडिया सुनने में बहुत कूल और क्रेज़ी लग सकता है. मगर परदे पर वो वैसे अनुभव में तब्दील नहीं हो पाता. फिल्म में एक सीन है, जिसमें इमरान हाशमी का निभाया समीर मेहरा का किरदार कहता है-
”मैं इस खेल से थक और पक गया हूं. खत्म करो इसे.”
‘चेहरे’ को देखते हुए समीर की इस फीलिंग के साथ मैं पूरी तरह रिलेट कर पाया. ये फिल्म का वो मोमेंट था, जैसे कहते हैं न कि बंद घड़ी भी दिन में एक बार सही समय तो बता ही देती है. ‘चेहरे’ शुरुआती 15-20 मिनट में पूरी कहानी को एस्टैब्लिश कर देती है. बावजूद इसके ये फिल्म हाफ टाइम तक खिंचती रहती है. आपको लगता है कि सेकंड हाफ में कुछ जबरदस्त देखने को मिलेगा. मगर आप एक के बाद एक चीज़ें प्रेडिक्ट करते जाते हैं और वैसा फिल्म में नहीं होता है. फिर आपको लगता है कि काश वैसा हो जाता, जैसे मैंने सोचा था, तो फिल्म कुछ देखने लायक तो बन ही जाती.
ओवरऑल एक्सपीरियंस
‘चेहरे’ एक ऐसी फिल्म है, जिसके पांव अब भी कहीं 90 के दशक में फंसे हुए हैं. ये आप फिल्म के फन एलीमेंट और उसकी महिला किरदारों के पोर्ट्रेयल से बड़ी आसानी से पता लगा सकते हैं. तिस पर फिल्म की अंतहीन लंबाई इसे और झिलाऊ बना देती है. ‘चेहरे’ को देखने की इकलौती वजह है इसकी स्टारकास्ट और नहीं देखने की तमाम वजहें हम आपको ऊपर गिना चुके हैं. चुनाव आपका है कि आप अच्छे चेहरे देखना चाहते हैं या अच्छा सिनेमा.
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फिल्म रिव्यू- चेहरे - The Lallantop
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