सोचो अगर आपको एक ही दिन को बार-बार जीने का मौका मिले तो क्या होगा? आप उसे एक ही तरह से जियेंगे या कुछ अलग करेंगे? कुछ देर में ही पक जरूर जाएंगे. अब सोचो कि अगर आपकी जान पर आ बनी हो और आपके पास खुद को या अपने अपनों को बचाने के लिए सिर्फ 50 मिनट का ही समय हो, और फिर आप लूप में फंस जाएं तो क्या होगा? यही तापसी पन्नू की नई फिल्म 'लूप लपेटा' में होता है.
क्या है फिल्म की कहानी?
ये कहानी है सवी यानी सवीना बोरकर की, जो एक एथलीट है. सवीना रेस में दौड़कर गोल्ड जीतना चाहती थी, लेकिन घुटना टूटने और अपना सपना बर्बाद होने के बाद से अलग ही इंसान बन गई है. अस्पताल की छत पर सवीना की मुलाकात होती है सत्या उर्फ सत्यजीत से जो जिंदगी में खूब पैसा कमाना चाहता है. इसीलिए सत्या जुआ खेलता है और रोज किसी ना किसी से पिटकर घर आता है.
सत्या का सपना है कि वो किसी दिन सवी को साथ लेकर Stockholm से Helsinki फेरी राइड पर जाएगा. लेकिन ना तो उसके पास ऐसा करने के पैसे हैं और ना ही किस्मत बहुत अच्छी है. पैसों की चाहत सत्या और सवी की जिंदगी में आग लगा देती है. यूजलेस सत्या अब जिंदगी और मौत के बीच खड़ा है. उसे अपनी जान बचाने के लिए किसी भी हालत में 50 मिनट में 50 लाख रुपये लाने हैं. इसी लिए वो सवी की मदद मांगता है और उसकी जिंदगी लूप के लपेटे में फंस जाती है.
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हंसाने के साथ-साथ पकाती भी है फिल्म
लूप लपेटा में तापसी पन्नू और ताहिर राज भसीन की जोड़ी काफी सही है. लेकिन फिर भी कुछ कमी है. दोनों ने काम अच्छा किया है. दोनों का टपोरी स्टाइल भी काफी दिलचस्प है. लेकिन मजा नहीं आया. फिल्म में दिब्येंदु भट्टाचार्य, राजेंद्र चावला, श्रेया धन्वंतरी, के सी शंकर, माणिक पपनेजा और भूपेश बंदेकर जैसे कलाकारों ने सपोर्टिंग रोल निभाए हैं. सभी ने अपना काम अच्छे से किया. अप्पू-गप्पू के रोल में माणिक और भूपेश काफी इम्प्रेसिव हैं.
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सवी को एक ही दिन को बार-बार जीते देखना दिलचस्प है, लेकिन किरदारों का एक ही बात को 50 बार बोलना का इरिटेटिंग लगता है. फिल्म में हर किरदार एक दूसरे के सामने शब्दों को दोहराता ही नजर आ रहा है. 50 लाख की बात होती है तो किरदार एक दूसरे से अलग-अलग एक्सप्रेशन-इमोशन में 50 लाख ही बोलने लग जाते हैं. कोई ब्रो बोलता है तो उसकी सुई वहीं अटक जाती है. फिल्म में थ्रिल है और काफी अच्छे कॉमिक पल भी हैं, लेकिन कई जगह पर आप इसे देखते हुए बोर हो सकते हैं. डायरेक्टर आशीष भाटिया की कोशिश अच्छी है, लेकिन यह फिल्म और बेहतर हो सकती थी.
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