- प्रदीप सरदाना
- वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी के लिए
भारत के बंटवारे, दंगों और उसके बाद हुए लाखों लोगों के विस्थापन को मानवीय इतिहास की सबसे बड़ी त्रासदियों में गिना जाता है लेकिन इस विषय पर बनीं फ़िल्मों को ऊंगलियों पर गिना जा सकता है.
आइए बात करते हैं ऐसी पांच ख़ास फ़िल्मों की जो विभाजन विभीषिका के कई सुने-अनसुने पहलुओं का मार्मिक चित्रण करती हैं.
1. गरम हवा
देश विभाजन के दौरान हालात अचानक कैसे बदल गए. इस पर भारत के साथ पाकिस्तान के फ़िल्मकारों ने भी उसी दौर में कुछ फिल्में बनाई थीं लेकिन इस पृष्ठभूमि पर जो फिल्म सबसे पहले ज्यादा सुर्खियों में आई, वह है- 'गरम हवा'.
देश विभाजन के करीब 25 बरस बाद 1973 में प्रदर्शित 'गरम हवा' इस्मत चुगताई की एक लघुकथा पर आधारित थी, इसकी पटकथा कैफी आज़मी और शमा ज़ैदी ने लिखी थी जबकि एमएस सथ्यू फिल्म के निर्देशक और सह-निर्माता भी थे.
देश विभाजन और महात्मा गांधी की हत्या के बाद के बदले हालात पर बनी 'गरम हवा' उत्तर भारत के मुसलमान व्यापारियों के दर्द को बयां करती है. फिल्म का प्रमुख पात्र आगरा का जूता व्यापारी सलीम मिर्ज़ा है.
विभाजन होने पर जब बहुत से मुसलमान पाकिस्तान चले जाते हैं तो सलीम मिर्ज़ा के साथ उसका छोटा बेटा सिकंदर भी हिन्दुस्तान में ही रहने का फैसला करते हैं. हालांकि तेज़ी से बदलते हालात को देख मिर्ज़ा परिवार के भी कुछ लोग पाकिस्तान चले जाते हैं. सलीम फिर भी भारत में रहना चाहता है.
फिल्म में सलीम की बेटी अमीना की प्रेम कहानी के माध्यम से उस दौर की उन प्रेम कहानियों का चित्रण भी किया गया. जब बँटवारे के कारण कितने ही जोड़े अपने प्रेमी या प्रेमिका से शादी नहीं कर सके. बाद में प्रेम का यह कथानक अन्य ऐसी फिल्मों का भी अहम हिस्सा बनता रहा.
अमीना जो पहले कासिम से प्यार करती है लेकिन उसके पाक जाने से उसके सपने टूट जाते हैं. फिर वह एक और युवक शमशाद में अपना प्यार तलाशती है लेकिन जब शमशाद का परिवार भी पाक जाने लगता है तो वह फिर से टूट जाती है.
इधर मिर्ज़ा अपने साथ हो रहे दुर्व्यवहार के कारण एक ओर बेघर हो जाता है. दूसरी तरफ, उसे अपनी बेटी का गम भी सताता है. तब वह भी यह सोच पाकिस्तान जाने का फैसला ले लेता है कि वहां उसे अच्छी ज़िंदगी मिल सकेगी.
'गरम हवा' में बलराज साहनी, गीता सिद्दार्थ, फारुख शेख, शौकत आज़मी, जलाल आगा और एके हंगल जैसे कलाकार हैं. सभी अपनी भूमिकाओं में अच्छे रहे. लेकिन बलराज साहनी की ज़िंदगी की 'दो बीघा ज़मीन' फिल्म के बाद 'गरम हवा' दूसरी ऐसी फिल्म है जिसके लिए उन्हें हमेशा याद किया जाएगा.
बलराज साहनी अपने करियर की इस शानदार फिल्म को नहीं देख पाए. फिल्म की डबिंग के दौरान उन्होंने 'गरम हवा' के कुछ दृश्य जरूर देखे, लेकिन पूरी फिल्म नहीं.
यह भी एक संयोग था जब बलराज साहनी ने 12 अप्रैल 1973 को 'गरम हवा' की अपनी आखिरी डबिंग की, उसी के अगले दिन, दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया.
फिल्म कितनी बेहतर थी इसकी गवाह फिल्म को मिले कई पुरस्कार भी देते हैं. सन 1974 में 'गरम हवा' को राष्ट्रीय एकता पर बनी सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला. साथ ही, यह फिल्म विदेशी भाषा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए ऑस्कर के लिए भी नामांकित हुई. कान फिल्म समारोह सहित कुछ अन्य अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में भी इस फिल्म का प्रदर्शन हुआ.
फिल्म को कहानी,पटकथा और संवाद के लिए तीन फिल्मफेयर पुरस्कार भी मिले. सथ्यू ने इसके बाद कुछ और भी फिल्में बनाईं लेकिन आज भी सथ्यू का नाम आते ही सबसे पहले 'गरम हवा' ही याद आती है.
2. तमस
जिस तरह बलराज साहनी अपनी सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में 'गरम हवा' के लिए याद किए जाते हैं. उसी तरह उनके भाई भीष्म साहनी का उपन्यास 'तमस' उनका सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यास है जिसके लिए भीष्म साहनी को साहित्य अकादमी सम्मान भी मिला.
'तमस' निर्देशक गोविंद निहालानी के करियर की भी सर्वश्रेष्ठ फिल्म है. 'तमस' को भी 1988 में राष्ट्रीय एकता पर बनी फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ फिल्म का नरगिस दत्त पुरस्कार मिला.
साथ ही, अपने शानदार अभिनय के लिए सुरेखा सीकरी को सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री और संगीत के लिए वनराज भाटिया को भी राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया.
फिल्म में ओम पुरी, अमरीश पुरी, दीना पाठक, दीपा साही, उत्तरा बाओकर, एके हंगल, मनोहर सिंह, सईद जाफरी, इफ्तखार, केके रैना, बेरी जॉन और हरीश पटेल के साथ खुद लेखक भीष्म साहनी भी अहम भूमिका में हैं.
साल 1947 में विभाजन के दौरान हुए दंगों की पृष्ठभूमि पर बनी यह फिल्म सांप्रदायिक दंगे भड़काने से लेकर उस पर राजनीति तक बहुत कुछ बताती है. जिसमें पाकिस्तान में दंगों के माहौल में फंसे हिन्दू और सिख परिवारों के दर्द को बहुत अच्छे ढंग से दिखाया है.
फ़िल्म की कहानी एक सूअर के मारे जाने से शुरू होती है, जो बाद में साम्प्रदायिक रूप ले लेती है. सूअर मारने का काम नत्थू से झूठ बोलकर करवाया जाता है. एक बड़े नेता बक्शीजी जब मुस्लिम मोहल्ले में जाकर देशभक्ति के गीत गाते हैं, तो उन्हें पत्थरों का सामना करना पड़ता है क्योंकि मस्जिद में सूअर का माँस पड़ा मिलता है.
नेताओं और शासकों के अपने-अपने मक़सद के बीच एक आम आदमी किस तरह फंस जाता है और अपनी दुर्दशा का ज़िम्मेदार खुद को ही मानने लगता है, यही कहानी का केंद्र बिंदु है.
मुसलमान समुदाय के अत्याचारों से बचते हुए हिन्दू और सिख भारत में शरण लेते हैं. कहानी के अंत मे शरणार्थी कैम्प में एक बच्चा जन्म लेता है. जिसके एक ओर से 'अल्ला हू अकबर' और दूसरी ओर से 'हर हर महादेव' के नारे सुनाई देते हैं.
उपन्यास में ये कहानी सिर्फ पाँच दिन की है लेकिन इन्हीं पाँच दिनों में इतना कुछ दिखा दिया जाता है उस दौर की बहुत बड़ी तस्वीर उभरकर आती है. 'तमस' का फिल्म के साथ दूरदर्शन पर सीरियल के रूप प्रसारण हुआ था.
3. ट्रेन टू पाकिस्तान
फिल्म 'ट्रेन टू पाकिस्तान' खुशवंत सिंह के 1956 में लिखे इसी नाम के चर्चित उपन्यास पर आधारित है, जिसकी कहानी भारत-पाक सीमा पर बसे एक काल्पनिक गांव मनो माजरा पर केंद्रित है. यह एक ऐसा शांत गांव है जहां सिख और मुसलमान बरसों से प्रेम भाव से रहते हैं. वहां सतलुज नदी पर एक रेलवे लाइन भी है.
गांव की ज़्यादातर ज़मीन सिखों की है और मुसलमान वहां मजदूर के रूप में काम करते हैं लेकिन जब देश का बँटवारा होता है तो सांप्रदायिक दंगों का तूफान सब कुछ तहस-नहस कर देता है.
जब पाकिस्तान में रह रहे सिख भारत की सीमा में आ रहे होते हैं, तभी पाकिस्तान से एक ऐसी ट्रेन भारत पहुँचती है, जो सिख, हिंदु पुरुषों, महिलाओं और बच्चों के शवों से भरी होती है.
यह फिल्म अपने कथानक के कारण तो दर्शकों को बुरी तरह झकझोरती ही है. साथ ही, इसका फिल्मांकन और कलाकारों का अभिनय देख ऐसे लगता है जैसे यह सब हमारे सामने हो रहा हो.
असल में खुशवंत सिंह के इस उपन्यास को पामेला जुनेजा (बाद में पामेला रुक्स) ने कोलकाता में पहली बार 1975 में जब पढ़ा, तब वह सिर्फ 17 साल की थीं. लेकिन नाटकों में दिलचस्पी लेने वाली पामेला के मन में तभी इस पर फिल्म बनाने का ख्याल आ गया था क्योंकि विभाजन को लेकर वह अपने माता-पिता की कहानियाँ बचपन से सुनती थीं. उधर खुशवंत सिंह ने ख़ुद भी विभाजन की त्रासदी को देखा था.
हालांकि पामेला का यह सपना करीब 23 साल बाद तब पूरा हुआ जब वह 40 बरस की हो चुकी थीं. पामेला रुक्स पांच साल कोमा में रहने के बाद सन 2010 में सिर्फ 52 बरस की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह गईं लेकिन अपनी इस फिल्म से वह लगातार सभी की स्मृतियों में बनी हुईं हैं.
फिल्म में मोहन अगाशे, निर्मल पांडे, स्मृति मिश्रा, दिव्या दत्ता, रजित कपूर और मंगल ढिल्लो प्रमुख भूमिकाओं में हैं.
4. पिंजर
साल 2003 में प्रदर्शित फिल्म 'पिंजर' बंटवारे की पृष्ठभूमि पर हिन्दू-मुस्लिम समस्याओं पर ऐसी फिल्म है जो बताती है सदभाव से समस्याओं का हल किया जा सकता है.
फिल्म में विभाजन के हालात में हिन्दू-मुस्लिम दुश्मनी तो दिखाई है लेकिन फिल्म का अंत इन दोनों के प्रेम से होता है.
'पिंजर' पंजाबी साहित्य की विख्यात लेखिका अमृता प्रीतम के इसी नाम के पंजाबी उपन्यास पर आधारित है. फिल्म का निर्देशन और पटकथा लेखन डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने किया है. अपने सीरियल 'चाणक्य' से अपनी प्रतिभा सिद्ध करने के करीब 10 साल बाद वह 'पिंजर' से पहली बार फिल्म निर्देशन में उतरे थे.
यह फिल्म सीमा पर बसे गांव में रह रही पूरो और रशीद की वह कहानी है जो बदले की भावना और नफरत से शुरू होकर धीरे प्रेम में बदल जाती है.
पूरो की भूमिका में उर्मिला मातोंडकर और रशीद के भूमिका में मनोज बाजपेयी हैं.
उर्मिला इससे पहले 'रंगीला' फिल्म के कारण एक ग्लैमरस गर्ल की इमेज के लिए मशहूर थीं लेकिन इस फिल्म में पूरो बनकर उर्मिला ने दिखा दिया भूमिका कोई भी हो वह उसमें खरी उतरेंगी.
उधर मनोज को तो 'पिंजर' में किए गए श्रेष्ठ अभिनय के लिए जूरी का विशेष राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी मिला. इस पीरियड ड्रामा फिल्म की विशेषता इसके खूबसूरत सेट भी थे. जहाँ मुंबई की फिल्म सिटी में कला निदेशक मुनीश सप्पल ने 1947 का लाहौर और अमृतसर उतार दिया था. अपने इस काम के लिए मुनीश को फिल्मफेयर पुरस्कार भी मिला.
'पिंजर' में संदली सिन्हा, प्रियांशु चटर्जी, ईशा कोपिकर, संजय सूरी, कुलभूषण खरबन्दा, दीना पाठक, फरीदा जलाल, सीमा बिस्वास और सुधा शिवपुरी सरीखे कलाकार अन्य प्रमुख भूमिकाओं में हैं.
फिल्म में दिखाया है कि जमींदार की बेटी पूरो का विवाह रामचंद से होना पक्का हो गया है लेकिन उससे पहले ही रशीद अपनी पुरानी रंजिश के चलते, पूरो का अपहरण कर लेता है. लेकिन नफरत और बदले की आग में सुलगता रशीद, पूरो के साथ रहते-रहते उससे प्रेम करने लगता है.
हालांकि एक रात पूरो भागकर अपने घर पहुँच जाती है लेकिन उसके परिवार वाले उसे स्वीकार नहीं करते. तब वह रशीद के पास लौट आती है. इसी दौरान देश का बंटवारा हो जाता है. ऐसे में रशीद पूरो की मदद करता है. पूरो का परिवार भारत आ जाता है लेकिन पूरो खुशी-खुशी रशीद के साथ पाकिस्तान में ही रह जाती है.
यह फिल्म बेहद खूबसूरत तरीके से बनने के बाद भी सफल नहीं हो सकी. कुछ लोगों ने फिल्म को इसलिए पसंद नहीं किया कि इसका अंत उन्हें पसंद नहीं आया.
5. गदर- एक प्रेम कथा
जहां 'गरम हवा','तमस','ट्रेन टू पाकिस्तान' और 'पिंजर' जैसी चारों फिल्में साहित्यिक कृतियों पर बनी हैं उनमें गंभीरता और संवेदनशीलता के साथ मुद्दे से जुड़े पहलुओं को दिखाया गया है.
वहीं इसी विषय पर बनी 'गदर'-एक प्रेम कथा' एक फ़ार्मूला फ़िल्म है जो भारत के दर्शकों की तालियां बटोरने के इरादे से ही बनाई गई थी और वह उसमें कामयाब भी रही.
'गदर' ने विभाजन की त्रासदी पर बनी एक सफल और लोकप्रिय फिल्म है जबकि ऊपर की चार फ़िल्में व्यावसायिक स्तर पर कामयाब नहीं रही थीं.
सन 2001 में रिलीज़ हुई 'गदर' का निर्माण ज़ी टेली फ़िल्म्स ने और निर्देशन अनिल शर्मा ने किया था.
फिल्म में जहां सनी देओल, अमीषा पटेल, अमरीश पुरी और सुरेश ओबेरॉय जैसे सितारे हैं. वहां उत्तम सिंह के संगीत निर्देशन में फिल्म के कई गाने हिट हुए और आज भी सोशल मीडिया पर इसके मीम बनते रहे हैं.
'गदर' में सनी, अमीषा और अमरीश तीनों मुख्य पात्रों का अभिनय नाटकीय लेकिन दिलचस्प है. अमीषा पटेल की तो यह ज़िंदगी की सबसे बेहतरीन फिल्म है जिसके लिए अमीषा को फिल्मफेयर का विशेष पुरस्कार भी मिला था.
फिल्म की कहानी विभाजन के दौरान दंगों से शुरू होती है जहां एक सिख युवक तारा सिंह एक मुस्लिम युवती सकीना को दंगाइयों से बचाता है. कभी तारा और सकीना शिमला के कॉलेज में साथ पढ़ते थे.
तारा अब अमीना को उसके घर भेजना चाहता है तो पता लगता है कि दंगों में उसके पिता अशरफ अली की मौत हो गयी है तब ये दोनों शादी कर लेते हैं. इनका एक बच्चा भी हो जाता है-जीत.
तभी पता लगता है कि अशरफ ज़िंदा ही नहीं, वह पाकिस्तान में मेयर बनकर राजनीति में छाया हुआ है. अमीना तब अपने पिता से मिलने लाहौर चली जाती है. लेकिन अशरफ उसे वापस भारत ना भेजकर, वहीं उसकी दूसरी शादी कराने लगता है.
तब नाटकीय अंदाज़ में तारा और जीत भी लाहौर पहुँच जाते हैं. उसके बाद सनी देओल के लात-घूँसों और हैंडपंप उखाड़कर लड़ने वाले दृश्य हैं जिसे लोग आज भी याद करते हैं.
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