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Friday, October 14, 2022

Doctor G Film Review: बिखरी सी लगती है 'डॉक्टर जी' की कहानी, मिसिंग है 'आयुष्मान टच' - Aaj Tak

जेंडर इक्वालिटी हमेशा से डिबेटेबल मुद्दा रहा है. एजुकेशन का फील्ड भी इससे अछूता नहीं है. मर्दों और औरतों को क्या पढ़ाई करनी चाहिए, इसका निर्णय भी सोसायटी द्वारा खींचे दायरे में रहकर ही लेना पड़ता है. मसलन अगर कोई लड़का गाइनोकॉलजिस्ट और लड़की सीविल इंजीनियर करना चाहती हैं, तो उसकी चॉइस को जज किया जाता है. कुछ ऐसी ही मुद्दों पर डॉक्टर जी की कहानी का ताना-बाना बुना गया है.


कहानी 
भोपाल के उदित गुप्ता (आयुष्मान खुराना) मेडिकल स्टूडेंट हैं और लंबे समय से ऑर्थोपिडिशियन बनने का सपना देख रहे हैं. रैंक कम होने की वजह से उनके नसीब में आती है गाइनोकॉलजिस्ट की सीट. उदित इससे खुश नहीं हैं क्योंकि उदित मानते हैं कि ये डिपार्टमेंट महिलाओं का है. हालांकि दूसरा ऑप्शन नहीं मिलने की वजह से मन मारकर उदित दाखिला लेते हैं. अब यहां से शुरू होती है उदित की अग्नि-परीक्षा. डिपार्टमेंट में एकमात्र मेल स्टूडेंट उदित की जर्नी कई रोलर-कोस्टर राइड लेते हुए आगे बढ़ती है. जहां उसकी मुलाकात सीनियर फातिमा (रकुलप्रीत) से होती है. क्या उनकी दोस्ती प्यार में तब्दील हो पाती है? और क्या उदित गाइनोकॉलजिस्ट बनना स्वीकार कर लेते हैं? यह सब जानने के लिए आपको थिएटर की ओर रुख करना होगा. 

डायरेक्शन 
गैंग्स ऑफ वासेपुर, देव डी जैसी फिल्मों की असिस्टेंट डायरेक्टर रह चुकीं अनुभूति कश्यप 'डॉक्टर जी' से अपना डायरेक्टोरियल डेब्यू कर रही हैं. अनुभूति ने बेशक इस फिल्म के जरिए एक अलग कहानी चुनी है लेकिन स्क्रिनप्ले और कहानी के बिखराव की वजह से फिल्म से आप ज्यादा कनेक्ट महसूस नहीं कर पाते हैं. फिल्म का फर्स्ट हाफ बहुत ही लंबा प्रतीत होता है, कुछेक सीन्स को छोड़ दिया जाए, तो इंटरवल तक आते-आते आप ऊब जाते हैं. वहीं सेकेंड हाफ पहले की तुलना में बेहतर लगता है. कहानी में कुछ इंट्रेस्टिंग मोड़ आते हैं जिसमें आपकी थोड़ी बहुत दिलचस्पी जगती है. ओवरऑल दो घंटे का टाइमफ्रेम होने के बावजूद फिल्म बोझिल सी लगती है. दरअसल इसका सबसे बड़ा ड्रॉ-बैक यही है कि किसी एक टॉपिक पर फोकस न होकर कई और मुद्दों को जबरदस्ती घुसाने की कोशिश की गई है. मसलन एक लड़के का गाइनो डिपार्टमेंट में होता स्ट्रगल, सिंगल मां की ख्वाहिशें, जेंडर इन-इक्वालिटी, रैगिंग, मेल टच(इगो) आदि कई पहलुओं को टच करती फिल्म किसी एक खास मुद्दे पर आकर नहीं रुकती है और यही वजह से कि आप फिल्म से कनेक्शन बना पाने में हेल्पलेस महसूस करने लगते हैं. हालांकि फिल्म में कुछेक कॉमिक सीन्स और डायलॉग्स ऐसे हैं, जो बोझिल फिल्म से बने माहौल को थोड़ा लाइट करते हैं, लेकिन ऐसे मौके बहुत कम मिले हैं. 

टेक्निकल 
इशित नरेन की सिनेमैटोग्राफी ठीक रही है. अस्पताल का ऑपरेशन रूम हो या चाहे भोपाल शहर, इशित ने फ्रेम दर फ्रेम फिल्म को बढ़िया तरीके से प्रेजेंट किया है. हां, यहां एडिटर प्रेरणा सहगल का काम औसत मान सकते हैं. खासकर फर्स्ट हाफ में उनकी एडिटिंग के स्किल की बेहद जरूरत थी. फिल्म के म्यूजिक डिपार्टमेंट की जिम्मेदारी अमित त्रिवेदी ने संभाली है. उनका गाना 'न्यूटन' का फिल्म के दौरान फिट बैठता है. हालांकि अमित से उम्मीदें कहीं ज्यादा हैं, तो इस फिल्म में उनका काम अप टू द मार्क नहीं लगता है. केतन सोधा का बैकग्राउंड स्कोर फिल्म की हर इमोशन को बिल्डअप करने में फ्यूल का काम कर रहा था.  

एक्टिंग 
सोशल मैसेज में कॉमिडी का तड़का लगाने में माहिर आयुष्मान यहां थोड़े फीके नजर आते हैं. अपनी पिछली फिल्मों की तरह लहजा पकड़ने में 'प्रो' रहे आयुष्मान का यहां भोपाली हिंदी बोलना उतना नैचुरल नहीं लगता है. डॉ फातिमा के रूप में रकुलप्रीत का काम भी डिसेंट रहा है. सिल्वर स्क्रीन पर पहली बार साथ नजर आए रकुल और आयुष्मान की जुगलबंदी भी खास मैजिक क्रिएट नहीं कर पाती है. हां, यहां अगर कोई इंप्रेस करती हैं, तो वो हैं आयुष्मान की मां बनीं शीबा चड्ढा, उनका किरदार जीवन से भरा है. आज की जनरेशन के बीच खुद को फिट करने की जद्दोजहद करतीं शीबा की मासूमियत आपका दिल जीत लेगी. उनके किरदार में लेयर्ड हैं और आपको उनका हर शेड्स पसंद आता है. इसके साथ टफ प्रोफेसर बनीं में शेफाली शाह का भी काम उम्दा रहा है. दोस्त के रूप में अभिनय राज सिंह की सहजता भी स्क्रीन पर साफ नजर आती है. 

क्यों देखें 
एक लाइट हार्टेड कॉमिडी संग सोशल मैसेज देती फिल्म को एक मौका दिया जा सकता है. हां, अगर आप फुल टू एंटरटेन होने के मकसद से थिएटर जा रहे हैं, तो शायद आप निराश होकर निकलें. 

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