2 घंटे पहलेलेखक: अरुणिमा शुक्ला
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लीजेंड्री सिंगर मुकेश की आज 100वीं बर्थ एनिवर्सरी है। 1300 से ज्यादा गाने गा चुके मुकेश कभी राज कपूर की आवाज माने जाते थे। 40 के दशक से अपनी गायकी का सफर शुरू करने वाले मुकेश को गायकी का ट्रैजेडी किंग भी कहा जाता था।
उनके 100वें जन्मदिन पर हमने बात की उनके बेटे सिंगर नितिन मुकेश से। नितिन मुकेश ने हमसे अपने पिता की जिंदगी के कुछ बेहतरीन किस्से शेयर किए। उनकी प्रेम कहानी किसी फिल्म से कम नहीं थी। उन्होंने अपने पिता की जिंदगी के संघर्ष वाले दिनों की यादें भी साझा कीं।
नितिन मुकेश के शब्दों में ही पढ़िए उनके पिता की जिंदगी की कहानी…
बहन की शादी में गाते देख फेमस एक्टर ने मुंबई आने का प्रस्ताव दिया
पापा (सिंगर मुकेश) का जन्म दिल्ली के एक माथुर कायस्थ परिवार में 22 जुलाई 1923 को हुआ था। वो 10 भाई-बहनों में एक थे। उनका रुझान हमेशा से संगीत की तरफ था। वो कुंदन लाल सहगल के गीत उनकी स्टाइल में ही गाते थे।
एक दिन उनकी बहन की शादी थी, जिसमें बारात की तरफ से उस वक्त के मशहूर एक्टर-प्रोड्यूसर मोतीलाल आए थे। उसी फंक्शन में भाई-बहनों के कहने पर पापा ने सहगल साहब के गीत सुनाए। उनके गीत मोतीलाल को बहुत भा गए, जिसके बाद उन्होंने पापा से कहा- मेरे साथ मुंबई चलो, मैं तुम्हारा जीवन सुधारना चाहता हूं।
फिर मोतीलाल ने दादा जी से बात की। उन्होंने कहा- आपका लड़का इतना बेहतरीन गाता है, फिर ये दिल्ली में क्यों है। इसे तो मुंबई जाना चाहिए। उनकी ये बात सुनकर दादा जी घबरा से गए। दरअसल, उस वक्त पापा की नौकरी लग गई थी। मिडिल क्लास परिवार में ये सारी चीजें बड़ी मायने रखती हैं।
पापा के भविष्य को लेकर दादा जी किसी तरह का कोई रिस्क नहीं लेना चाहते थे। फिर पापा के ताऊ जी ने दादा जी को समझाया और कहा- बेटे को मुंबई जाकर सपना पूरा करने दो। फिर वो पापा को मुंबई भेजने के लिए राजी हो गए। उस वक्त पापा 16-17 साल के थे।
एक्टर मोतीलाल ने मुंबई में पनाह दी, संगीत शिक्षा दिलाई
मोतीलाल की कोई संतान नहीं थी। इस कारण वो पापा को अपने सगे बेटे जैसा मानते थे। उन्होंने ताउम्र पापा की परवरिश एक बेटे की तरह ही की। हालांकि, जब वो पापा को मुंबई लेकर आए, तो कहा- तुम्हें हर एक सुख-सुविधा मिलेगी। खाना मिलेगा, कपड़े मिलेंगे मगर खबरदार एक रुपया भी मुझसे मांगा तो। तुम्हें इंडस्ट्री में अपनी पहचान खुद के दम पर बनानी पड़ेगी। पैसे भी खुद ही कमाने होंगे।
उन्होंने पापा को पंडित जगन्नाथ प्रसाद से संगीत की शिक्षा दिलवाई। पापा ने भी संगीत के लिए बड़ी मेहनत की, जिसका फल भी उन्हें जल्द ही मिल गया।
पहली फिल्म से डायरेक्टर ने गाना हटाया, दर्शकों की डिमांड पर दोबारा जोड़ा
म्यूजिक डायरेक्टर अनिल बिस्वास ने पापा को पहली बार 1945 की फिल्म पहली नजर में गाने का मौका दिया था। गाने के बोल थे- दिल जलता है, तो जलने दे। इस फिल्म में मोतीलाल बतौर एक्टर नजर आए थे। ये गाना उन्हीं पर फिल्माया भी गया था।
इस फिल्म और गाने से जुड़ा ये किस्सा है कि डायरेक्टर मजहर खान ने कहा था कि अगर लोगों को ये गाना पसंद नहीं आया तो वो ये गाना फिल्म से हटा देंगे। रिलीज के बाद कुछ टाइम के लिए उन्होंने फिल्म से इस गाने को हटा भी दिया था। हालांकि, बाकी सभी लोग समेत अनिल बिस्वास को भी पापा की आवाज में ये गाना बहुत पसंद आया था।
बाद में जब दर्शकों को फिल्म में गाना नहीं मिला तो उन्होंने फिल्म में इस गाने को फिर से डालने की मांग की। लोगों को महसूस हुआ कि फिल्म की असली जान ये गाना ही था। लोगों की बढ़ती डिमांड को देखकर इस गाने को वापस जोड़ा गया। दशक बीत गए हैं, लेकिन आज भी ये गाना लोगों के जहन में है। आज मैं जब भी किसी कार्यक्रम में जाता हूं, तो लोग सबसे ज्यादा इसी गीत की डिमांड करते हैं।
पापा के पास कई फिल्मों में एक्टिंग के ऑफर आए थे। एक-दो फिल्मों में उन्होंने काम किया था, लेकिन बतौर एक्टर वो लोगों के दिलों में जगह बनाने में कामयाब नहीं रहे। शायद उन्होंने आधे मन से ही एक्टिंग की थी। समय रहते उन्होंने खुद से इस बात को भांप लिया था कि वो सिर्फ बेहतरीन सिंगर ही बन सकते हैं। मैं हमेशा उनसे कहता था कि अच्छा हुआ वो एक्टर नहीं बने नहीं तो ये इंडस्ट्री इतने लाजवाब सिंगर से वंचित रह जाती।
मैं तो मात्र शरीर हूं, आत्मा तो मुकेश हैं- राज कपूर
राज कपूर और पापा का रिश्ता सगे भाइयों जैसा था। राज जी हमेशा कहते थे- मैं तो मात्र शरीर हूं, मेरी आत्मा और रूह तो मुकेश हैं। फिल्म आग की शूटिंग के दौरान दोनों की पहली बार मुलाकात हुई थी, जिसके बाद दोनों की दोस्ती ताउम्र रही। दोनों की आवाज भी काफी हद तक मिलती थी। राज जी ने भी कुछ फिल्मों के गानों को अपनी आवाज दी थी।
राज जी पापा के सुख-दुःख के साथी थे। पापा के निधन के बाद ऐसा कोई दिन नहीं बीता कि उन्होंने कॉल करके हमसे बात ना की हो। उनके गुजर जाने के बाद उनकी पत्नी कृष्णा जी हमें कॉल करती थीं।
मुकेश से शादी की जिद पर घरवालों ने सरला को नजरबंद किया
पापा माथुर कायस्थ थे और मां गुजरात के बड़ौदा की श्रीमाली ब्राह्मण थीं। पापा बड़े मामा के बहुत प्रिय मित्र थे, इसी वजह से पापा उनके घर जाया करते थे। इसी दौरान मां और उनकी मुलाकात भी होती थी। धीरे-धीरे साथ वक्त बिताने से मां उन्हें पसंद करने लगीं। पापा भी मां की सादगी पर मोहित होकर उन्हें पसंद करने लगे। दोनों ने शादी करने का फैसला भी कर लिया।
जब ये बात दोनों के परिवार वालों को पता चली तो पापा के परिवार में से किसी ने ऐतराज नहीं किया, लेकिन मां का परिवार इस रिश्ते के खिलाफ था। उन्होंने पापा के घर आने पर भी पाबंदी लगा दी। परिवार के बढ़ते विरोध के चलते दोनों ने भागकर शादी करने का फैसला किया था।
पापा ने इस पर मोतीलाल जी से भी बात की थी। उन्होंने पापा का पूरा सपोर्ट किया था। उन्होंने कहा था- तुम सरला से शादी करो, मैं कन्यादान करूंगा। मां-पापा घर से भागते इससे पहले ही परिवार वालों ने मां को नजरबंद कर दिया। घर से निकलने की इजाजत भी नहीं थी। दोनों टाइम का खाना उनके कमरे में पहुंचा दिया जाता था। मां ने परिवार वालों से कहा था कि वो मर जाएंगी, लेकिन खाना नहीं खाएंगी। इस पर घरवालों का कहना था कि इससे बढ़िया है कि वो मर जाएं, लेकिन शादी तो उस लड़के से नहीं ही कराएंगे। ये सिलसिला कई दिनों तक चला फिर बारिश का मौसम आ गया।
पापा बारिश के दिनों में रात-रात भर मां के घर के नीचे उनकी एक झलक पाने के लिए खड़े रहते थे। मां की एक दोस्त थीं, जो उनके घर के पास रहती थीं। वो मां से जुड़ी सभी जानकारियां पापा तक पहुंचाती थीं। मां सावन सोमवार का व्रत रखती थीं। भगवान के दर्शन के बाद ही वो कुछ खाती थीं। उन्होंने ये योजना बनाई कि जब वो दर्शन के लिए मंदिर जाएंगी, तभी वहां से वो पापा के साथ भागकर शादी कर लेंगी। इस बात की जानकारी उन्होंने खत के जरिए दोस्त की मदद से पापा तक पहुंचाई। जिस दिन उन्होंने शादी की योजना बनाई उसी दिन पापा का जन्मदिन भी था।
22 जुलाई 1946 के दिन मां घर से बिना चप्पल पहने ही मंदिर के लिए निकल गईं। मंदिर पर पापा के दोस्त विजय किशोर दुबे मां का इंतजार कर रहे थे। रास्ते में मां ने अपने लिए चप्पल खरीदी। फिर पापा के दोस्त के साथ मां भागकर कांदिवली के एक मंदिर आईं, जहां पापा पहले से उनका इंतजार कर रहे थे। फिर दोनों ने शादी की, मोतीलाल जी ने मां का कन्यादान किया था। शादी के वक्त पापा 23 साल के थे और मां 18 साल की थीं।
शादी के बाद पापा से पास घर नहीं था, तो कुछ दिनों तक दोनों मोतीलाल जी के घर पर ही रहे, फिर वो लोग एक साल तक सैनेटोरियम में रहे। इसके बाद पापा ने एक कमरा किराए पर लिया।
बुरे वक्त में बच्चों की फीस भरने में सब्जी वाले ने मदद की
फिल्म आवारा जैसी फिल्मों के हिट गाने देने के बाद भी पापा ने स्ट्रगल किया। तंगी का दौर ऐसा था कि दोनों टाइम खाना क्या बनेगा, ये भी नहीं पता होता था। मां ने अपने गहने भी गिरवी रख दिए थे। पापा बेहद कम पढ़े-लिखे थे। उन्हें तो हिंदी लिखनी नहीं आती थी। उर्दू में लिखा करते थे। हालांकि, उन्होंने खुद पर मेहनत की और हिंदी-अंग्रेजी दोनों भाषा सीखीं। यही वजह थी कि वो हमेशा चाहते थे कि उनके बच्चे अच्छे स्कूल में पढ़ें।
तंगी के दौर तक हम सिर्फ 3 भाई-बहन ही थे। फीस जमा न होने की वजह से स्कूल वालों ने हमें निकाल दिया था। ये बात जब पापा को पता चली तो वो बेचैन हो उठे। तब इस मुसीबत की घड़ी में एक सब्जी वाले ने पापा की मदद की, जिसका एहसान पापा ने ताउम्र माना।
इस बुरे दौर में पापा के कई दोस्तों ने उनकी किसी ना किसी तरह से मदद की। पड़ोस में एक आंटी रहती थीं। वो अपने बच्चों के साथ हमारे के लिए भी खाने के लिए कुछ ना कुछ लाती रहती थीं। वो इस बात की भनक बिल्कुल नहीं लगने देती थीं कि हमारे बुरे दिन हैं तो वो मदद के लिए ऐसा कर रही हैं।
पापा ने हमेशा मुझे संगीत के लिए प्रोत्साहित किया
मैं पापा के साथ हमेशा रिकॉर्डिंग में जाता था। वहीं से मेरा रुझान भी संगीत की तरफ हो गया। उन्होंने हमेशा मुझे इस चीज के लिए प्रोत्साहित किया। मैंने भी उन्हीं के गुरुजी पंडित जगन्नाथ प्रसाद से संगीत की शिक्षा ली।
पापा ने लता दीदी को ब्रेक नहीं दिया था। उन्होंने बस दीदी के करियर के शुरुआती दिनों में मदद की थी। दीदी पापा को बड़ा भाई मानती थीं। दीदी की मां उन्हें अकेले रिकॉर्डिंग के लिए नहीं भेजती थीं, वो थोड़ा डरती थीं। इसी कारण पापा उन्हें हमेशा रिकॉर्डिंग के लिए ले जाया करते थे। पापा ने पूरी जिंदगी बड़ा भाई बनकर दीदी का साथ दिया।
पापा का जो अंतिम कॉन्सर्ट अमेरिका में था, लता दीदी भी उनके साथ गई थीं। कुछ दिनों से पापा की तबीयत खराब चल रही थी, जिसके बाद उन्होंने दीदी से कहा- आप दो गाने नितिन से गवा लें, इससे मुझे भी थोड़ा आराम मिल जाएगा और मेरा सपना भी पूरा हो जाएगा कि उसने आपके साथ परफॉर्मेंस दी। इस बात पर दीदी ने भी सहमति जताई थी। मुझे इस बारे में कोई जानकारी नहीं थी। जब शो शुरू हुआ तब दीदी ने मुझे स्टेज पर बुलाया और गाने की गुजारिश की। ये पल मेरे लिए बेहद खास था, क्योंकि इस शो में मैंने पापा के सामने अपनी परफॉर्मेंस दी, जो उन्हें बहुत पसंद आई थी।
पापा के चले जाने के बाद दीदी ने ताउम्र मेरा साथ दिया। वो अपने हर कार्यक्रम में मुझे बुलाती थीं। उनकी बदौलत मैंने पूरी दुनिया देखी है। आए दिन वो कॉल और मैसेज से हाल-चाल पूछती थीं। कोविड के दौरान वो हर दिन कॉल करके तबीयत की जानकारी लेती थीं। इस दौरान उन्होंने मुझे राम दरबार की मूर्ति भेजी थी, जो आज भी मेरे मंदिर में रखी हुई है।
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